नबी की किसी चीज़ को हल्का जानने का हुक्म, ओर मोज्जीजा व करामत का फ़र्क

 


अकीदा, हुज़ूर के किसी कॉल व फैसले व अमल व हालत को जो हिकारत की नज़र से देखे काफ़िर है।

मोजिज़्जा व करामत का फ़र्क ,

वह अजीब व ग़रीब काम जो आदतन ना। मुमकिन हो जिसे नबी अपनी नबूबत के सबूत में पेश करे और उससे मूनकरीन अजीज़ हो जाय वह मोजिजा है जैसे मुर्दा को जिंदा करना ऊंगली के इशारे से चांद को दो टुकड़े कर देना, ऐसी अजीब व ग़रीब बात अगर वली से ज़ाहिर हो तो उसे करामत कहते हैं और निडर बढकर या काफ़िर से हो तो उसको इस्तेदराज कहते हैं। 


मोजिज्जा को देखकर नबी की सच्चाई का यक़ीन होता है कि जिसके हाथ पर कुदरत की ऐसी निशानियां ज़ाहिर हों जिसके मुक़ाबिल सब लोग अजीज़ व हैरान हों ज़रूर वह ख़ुदा का भेजा हुआ है। कोई जुंटा नबूबत का दावा करके मोजिजा हरगिज़ नहीं दिखा सकता। अल्लाह ताला झूठे को मोजिजा हरगिज़ नहीं अता फरमाता वरना सच्चे जुंटा में फ़र्क़ ना रहे।

नबी की लगज़िश का हुक्म।

मसला ए ज़रूरिया, अंबिया अलीमुस्लाम से जो लगज़िशे (भूल चुक) हुई उनका ज़िक्र तिलावते कुरान व रिवायतें हदीस के सिवा हराम और सख़्त हराम है। औरों को उन सरकारों में लब कुशाई की क्या मजाल, अल्लाह ताला उनका मालिक है जिस महल पर जिस तरह चाहे ताबीर फरमाए वह उस के प्यारे बंदे हैं।
अपने रब के लिये जिस क़दर चाहे तवाजो करें दूसरा उन कालीमत को सनद नहीं बना सकता। यानी नबी की भूलचूक के मौके पर अल्लाह ताला ने जो कलिमा किसी नबी को कहा या नबी ने इनकेसरी व आजिज़ी के तौर पर अपने को कहा किसी उम्मति को नबी के हक में ऐसे क़लीमत कहना नाजायज व हराम हैं। 

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